विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 105



 [ " सत्य में रूप अविभक्त हैं . सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त हैं . दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो . " ]

न केवल यह अनुभव करो कि तुम इस चेतना से बने हो , बल्कि अपने आस-पास की हर चीज को इसी चेतना से निर्मित जानो . क्योंकि यह अनुभव करना तो बड़ा सरल है कि तुम इस चेतना से बने हो , इससे तुम्हें बड़े अहंकार का भाव हो सकता है , अहंकार को इससे बड़ी तृप्ति मिल सकती है . लेकिन अनुभव करो कि दूसरा भी इसी चेतना से बना है , फिर यह एक विनम्रता बन जाती है .
      जब सब कुछ दिव्य है तो तुम्हारा मन अहंकारी नहीं हो सकता . जब सब कुछ दिव्य है तो तुम विनम्र हो जाते हो . फिर तुम्हारे कुछ होने का , कुछ श्रेष्ठ होने का प्रश्न नहीं रह जाता , फिर पूरा अस्तित्व दिव्य हो जाता है और जहां भी तुम देखते हो , दिव्य को ही देखते हो . देखने वाला दृष्टा और देखा गया दृश्य , दोनों दिव्य हैं , क्योंकि रूप विभक्त नहीं हैं . सब रूपों के पीछे अरूप छिपा हुआ है .



विधि 100