विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 13



( " या कल्पना करो कि मयूर की पूंछ के पंचरंगे वर्तुल निस्सीम अंतरिक्ष में तुम्हारी पांच इन्द्रियां हैं . अब उनके सौंदर्य को भीतर ही घुलने दो . उसी प्रकार शून्य में या दीवार पर किसी बिंदु के साथ कल्पना करो , जब तक कि वह बिंदु विलीन न हो जाए . तब दूसरे के लिए तुम्हारी कामना सच हो जाती है ." )


अगर बाहर कहीं भी , मन में , हृदय में या बाहर की किसी दीवार में एक केन्द्र बना सके और उस पर समग्रता से अपने अवधान को केंद्रित कर सके और उस बीच समूचे ससार को भूल सके और एक वही बिंदु तुम्हारी चेतना में रह जाए , तो तुम अचानक अपने आंतरिक केन्द्र में फेंक दिए जाओगे . यह कैसे काम करता है , इसे समझो .

     जब तुम दीवार पर , किसी बिंदु पर मन को एकाग्र कर रहे हो , तो तुम्हारा मन क्या करता है ? वह निरंतर तुमसे बिंदु तक और बिंदु से तुम तक उछलकूद करता रहता है . एक सतत उछलकूद की प्रक्रिया चलती है . जब मन विचलित होता है , तो तुम बिंदु को नहीं देख सकते . क्योंकि तुम यथार्थ आँख में से नहीं , मन से और आँख से बिंदु को देखते हो . अगर मन वहां न रहे , तो आँखें काम नहीं कर सकतीं . तुम दीवार को घूरते रह सकते हो , लेकिन बिंदु नहीं दिखाई पड़ेगा . क्योंकि मन न रहा , सेतु टूट गया . बिंदु तो सच है , वह है . इसलिए जब मन लौट आयेगा , तो फिर उसे देख सकोगे . लेकिन अभी नहीं देख सकते , अभी तुम बाहर गति नहीं कर सकते . अचानक तुम अपने केन्द्र पर हो . यह केन्द्रस्थता तुम्हें तुम्हारे अस्तित्वगत आधार के प्रति जागरूक बना देगी , तब तुम जानोगे कि कहाँ से तुम अस्तित्व के साथ संयुक्त हो , जुड़े हो . तुम्हारे भीतर ही वह बिंदु है जो समस्त अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है , जो उसके साथ एक है . और जब एक बार इस केन्द्र को जान गए , तो तुम घर आ गए . तब यह संसार परदेश नहीं रहा और तुम परदेशी नहीं रहे . तब यह जगत तुम्हारा घर है , तब तुम संसार के हो गए . तब किसी संघर्ष की , किसी लड़ाई की जरूरत न रही . तब तुम्हारे और अस्तित्व के बीच शत्रुता न रही , अस्तित्व तुम्हारी मां हो गई .



विधि 100