विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 38



["ध्वनि के केन्द्र में स्नान करो , मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो . या कानों में अंगुली डालकर नादों के नाद , अनाहत को सुनो ."]

इस विधि का प्रयोग कई ढंग से किया जा सकता है . एक ढंग यह है कि कहीं भी बैठकर इसे शुरू कर दो . ध्वनियां तो सदा मौजूद हैं . चाहे बाजार हो या हिमालय की गुफा , ध्वनियां सब जगह हैं . चुप होकर बैठ जाओ . और ध्वनियों के साथ एक बड़ी विशेषता है , एक बड़ी खूबी है . जहाँ भी , जब भी कोई ध्वनि होगी , तुम उसके केन्द्र होगे . सभी ध्वनियां तुम्हारे पास आती हैं , चाहे वे कहीं से आयें , किसी दिशा से आयें . आंख के साथ , देखने के साथ यह बात नहीं है . दृष्टि रेखाबद्ध है . मैं तुम्हें देखता हूं तो मुझसे तुम तक एक रेखा खिंच जाती है . लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार है ; वह रेखाबद्ध नहीं है . सभी ध्वनियां वर्तुल में आती हैं और तुम उनके केन्द्र हो . तुम जहाँ भी हो , तुम सदा ध्वनि के केन्द्र हो . ध्वनियों के लिए तुम सदा परमात्मा हो -- समूचे ब्रह्मांड का केन्द्र . हरेक ध्वनि वर्तुल में तुम्हारी तरफ यात्रा कर रही है .
      यह विधि कहती है : "ध्वनि के केन्द्र में स्नान करो". अगर तुम इस विधि का प्रयोग कर रहे हो तो तुम जहां भी हो वहीं आंखें बंद कर लो और भाव करो कि हरेक ध्वनि तुम्हारी ओर बही आ रही है . और तुम उसके केन्द्र हो . यह भाव भी कि मैं केन्द्र हूं तुम्हें गहरी शान्ति से भर देगा . सारा ब्रह्मांड परिधि बन जाता है और तुम उसके केन्द्र होते हो . और हर चीज , हर ध्वनि तुम्हारी तरफ बह रही है .
   अपने को केन्द्र समझने पर यह जोर क्या है ? क्योंकि केन्द्र में कोई ध्वनि नहीं है ; केन्द्र ध्वनि-शून्य है . यही कारण है कि तुम्हें ध्वनि सुनाई पड़ती है ;  अन्यथा नहीं सुनाई पड़ती . ध्वनि ही ध्वनि को नहीं सुन सकती . अपने केन्द्र पर ध्वनि-शून्य होने के कारण तुम्हें ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं . केन्द्र तो बिलकुल ही मौन  है , शांत है . इसलिए तुम ध्वनि को अपनी ओर आते , अपने भीतर प्रवेश करते , अपने को घेरते हुए सुनते हो . 
  अगर तुम खोज लो कि यह कहां है , तुम्हारे भीतर वह जगह कहां है जहां सब ध्वनियां बहकर आ रही हैं तो अचानक सब ध्वनियां विलीन हो जाएंगी और तुम निर्ध्वनि में , ध्वनि-शून्यता में प्रवेश कर जाओगे . अगर तुम उस केन्द्र को महसूस कर सको जहां सब ध्वनियां सुनी जाती हैं तो अचानक चेतना मुड़ जाती है . एक क्षण तुम निर्ध्वनि से भरे संसार को सुनोगे और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना भीतर की ओर मुड़ जायेगी और तुम बस ध्वनि को , मौन को सुनोगे जो जीवन का केन्द्र है . और एक बार तुमने उस ध्वनि को सुन लिया तो कोई भी ध्वनि तुम्हें विचलित नहीं कर सकती . वह तुम्हारी ओर आती है ; लेकिन वह तुम तक पहुंचती नहीं है . वह सदा तुम्हारी ओर बह रही है ; लेकिन वह कभी तुम तक पहुंच नहीं पाती . एक बिंदु है जहां कोई ध्वनि नहीं प्रवेश करती है ; वह बिंदु तुम हो . "या कानों में अंगुली डालकर नादों के नाद , अनाहत को सुनो ." एक ही विधि में दो विपरीत बातें कही गई हैं . "ध्वनि के केन्द्र में स्नान करो , मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो." यह एक अति है . "या कानों में अंगुली डालकर नादों के नाद को सुनो ." यह दूसरी अति है . एक हिस्सा कहता है कि अपने केन्द्र पर पहुचने वाली ध्वनियों को सुनो और दूसरा हिस्सा कहता है कि सब ध्वनियों को बंद कर ध्वनियों की ध्वनि को सुनो . एकही विधि में दोनों को समाहित करने का एक विशेष उद्देश्य है कि तुम एक छोर से दूसरे छोर तक गति कर सको .
     यहां 'या'शब्द चुनाव करने को नहीं कहता है कि इनमें किसी एक का प्रयोग करना है . नहीं , दोनों को प्रयोग करो . इसीलिए एक विधि में दोनों को समाविष्ट किया गया है . पहले कुछ महीनों तक एक का प्रयोग करो और फिर दूसरे का . इस प्रयोग से तुम ज्यादा जीवंत होगे और तुम दोनों छोरों को जान लोगे .



विधि 100