विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 42



["किसी ध्वनि का उच्चार ऐसे करो कि वह सुनाई दे ; फिर उस उच्चार को मंद से मन्दतर किये जाओ -- जैसे-जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए ."]

किसी भी ध्वनि से काम चलेगा . अपनी ध्वनि खोज लो . और जब तुम उसका उच्चार करोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि उसके साथ तुम्हारा संबंध प्रेमपूर्ण है अथवा नहीं . प्रेमपूर्ण संबंध होगा तो तुम्हारा हृदय उसके साथ तरंगायित होने लगेगा . प्रेमपूर्ण संबंध होगा तो तुम्हारा शरीर ज्यादा संवेदनशील होने लगेगा . तुम्हें लगेगा जैसे कि मैं प्रेमिका की गोद जैसी उष्ण व सुखद जगह में बैठा हूं . एक उष्णता तुम्हें घेरने लगेगी . तुम्हें यह अनुभव न केवल मानसिक तल पर होगा , बल्कि शारीरिक तल पर भी होगा . अगर तुम किसी ऐसी ध्वनि का उच्चार करोगे जो तुम्हें प्रीतिकर है तो तुम्हें अपने भीतर और बाहर , चारों तरफ एक ऊष्मा का , सुख का अनुभव होगा . तब यह संसार एक कठोर संसार नहीं रह जाएगा , एक हृदयपूर्ण संसार होगा .
       ध्वनि को निरंत घटाते जाओ . उच्चार को इतना धीमा करो कि तुम्हें भी उसे सुनने के लिए प्रयत्न करना पड़े . ध्वनि को कम करते जाओ , कम करते जाओ-- और तुम्हें फर्क मालूम होगा . ध्वनि जितनी धीमी होगी , तुम उतने ही भाव से भरोगे . और जब ध्वनि विलीन होती है तो भाव ही शेष रहता है . इस भाव को नाम नहीं दिया जा सकता ; वह प्रेम है , प्रगाढ़ प्रेम है . लेकिन यह प्रेम किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं है . यही फर्क है .



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