विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 91



  [ " हे दयामयी , अपने रूप को बहुत ऊपर और बहुत नीचे , आकाशीय उपस्थिति में प्रवेश करो . " ]

यह दूसरी विधि तभी प्रयोग की जा सकती है जब तुमने पहली विधि पूरी कर ली है . यह प्रयोग अलग से भी किया जा सकता है ; लेकिन तब यह बहु कठिन होगा . इसलिए पहली विधि पूरी करके ही इसे करना अच्छा है .और तब यह विधि  बहुत  सरल भी हो जाएगी . जब भी ऐसा होता है--कि तुम हलके-फुलके अनुभव करते हो , जमीन से उठते हुए अनुभव करते हो , मानो तुम उड़ सकते हो-- तभी अचानक तुम्हें बोध होगा कि तुम्हारे शरीर को चारों ओर से एक नीला-आभामंडल घेरे है . लेकिन यह अनुभव तभी होगा जब तुम्हें लगे कि मैं जमीन से ऊपर उठ सकता हूं , कि मेरा शरीर आकाश में उड़ सकता है , कि वह बिलकुल हलका और निर्भार हो गया है , कि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बिलकुल मुक्त हो गया है . पहले तुम्हें अपने भौतिक शरीर को घेरने वाले आकाश-शरीर के प्रति बोधपूर्ण होना होगा . और जब तुम्हें उसका बोध होने लगे तो उसे बढ़ाओ , बड़ा करो , फैलाओ . इसके लिए तुम क्या कर सकते हो ?
      बस चुपचाप बैठना है और उसे देखना है .कुछ करना नहीं है ; बस अपने चारों ओर फैले इस नीले आकार को देखते रहना है . और देखते-देखते तुम पाओगे कि वह बढ़ रहा है , बड़ा हो रहा है . सिर्फ देखने से वह बड़ा हो रहा है . क्योंकि जब तुम कुछ नहीं करते हो तो पूरी ऊर्जा आकाश-शरीर को मिलती है , इसे स्मरण रखो .   



विधि 100